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कंकाल-अध्याय -५८

ताल के किनारे, पत्थर की शिला पर, महुए की छाया में एक किशोरी और एक खसखसी दाढ़ीवाला मनुष्य, लम्बी सारंगी लिये, विश्राम कर रहे थे। बालिका की वयस चौदह से ऊपर नहीं; पुरुष पचास के समीप। वह देखने में मुसलमान जान पड़ता था। देहाती दृढ़ता उसके अंग-अंग से झलकती थी। घुटनों तक हाथ-पैर धो, मुँह पोंछकर एक बार अपने में आकर उसने आँखें फाड़कर देखा। उसने कहा, 'शबनम! देखो, यहाँ कोई अमीर टिका हुआ मालूम पड़ता है। ठंडी हो चुकी हो, तो चलो बेटी! कुछ मिल जाये तो अचरज नहीं।' शबनम वस्त्र सँवारने लगी, उसकी सिकुड़न छुड़ाकर अपनी वेशभूषा को ठीक कर लिया। आभूषणों में दो-चार काँच की चूड़ियाँ और नाक में नथ, जिसमें मोती लटककर अपनी फाँसी छुड़ाने के लिए छटपटाता था। टट्टर के पास पहुँच गये। मिरजा ने देखा-बालिका की वेशभूषा में कोई विशेषता नहीं, परन्तु परिष्कार था। उसके पास कुछ नहीं था-वसन अलंकार या भादों की भरी हुई नदी-सा यौवन। कुछ नहीं, थीं केवल दो-तीन कलामयी मुख रेखाएँ-जो आगामी सौन्दर्य की बाह्य रेखाएँ थीं, जिनमें यौवन का रंग भरना कामदेव ने अभी बाकी रख छोड़ा था। कई दिन का पहना हुआ वसन भी मलिन हो चला था, पर कौमार्य में उज्ज्वलता थी। और यह क्या! सूखे कपोलों में दो-दो तीन-तीन लाल मुहाँसे। तारुण्य जैसे अभिव्यक्ति का भूखा था, 'अभाव-अभाव!' कहकर जैसे कोई उसकी सुरमई आँखों में पुकार उठता था। मिरजा कुछ सिर उठाकर झँझरी से देखने लगा। 'सरकार! कुछ सुनाऊँ दाढ़ीवाले ने हाथ जोड़कर कहा। सोमदेव ने बिगड़ कर कहा, 'जाओ अभी सरकार विश्राम कर रहे हैं।' 'तो हम लोग भी बैठ जाते हैं, आज तो पेट भर जायेगा।' कहकर वह सारंगीवाला वहाँ की भूमि झाड़ने लगा। झुँझलाकर सोमदेव ने कहा, 'तुम भी एक विलक्षण मूर्ख हो! कह दिया न, जाओ।' सेवक ने भी गर्व से कहा, 'तुमको मालूम नहीं, सरकार भीतर लेटे हैं।' 'शाहजादे मिरजा जमाल।' 'कहाँ हैं?' 'यहीं, इसी टट्टी में हैं, धूप कम होने पर बाहर निकलेंगे।' 'भाग खुल गये! मैं चुपचाप बैठता हूँ।' कहकर दाढ़ीवाला बिना परिष्कृत की हुई भूमि पर बैठकर आँखें मटकाकर शबनम को संकेत करने लगा। शबनम अपने एक ही वस्त्र को और भी मलिन होने से बचाना चाहती थी, उसकी आँखें स्वच्छ स्थान और आड़ खोज रही थीं। उसके हाथ में अभी तोड़ा हुआ कमलगट्टा था। सबकी आँखें बचाकर वह उसे चख लेना चाहती थी। सहसा टट्टर खुला। मिरजा ने कहा, 'सोमदेव!' सेवक दौड़ा, सोमदेव उठ खड़ा हुआ था। उसने कई आदाब बजाकर और सोमदेव को कुछ बोलने का अवसर न देते हुए कहा, 'सरकार! जाचक हूँ, बड़े भाग से दर्शन हुए।' मिरजा को इतने से संतोष न हुआ। उन्होंने मुँह बन्द किये, फिर सिर हिलाकर कुछ और जानने की इच्छा प्रकट की। सोमदेव ने दरबारी ढंग से डाँटकर कहा, 'तुम कौन हो जी, साफ-साफ क्यों नहीं बताते 'मैं ढाढी हूँ?' 'और यह कौन है?' 'मेरी लड़की शबनम।' 'शबनम क्या?' 'शबनम ओस को कहते हैं पण्डित जी।' मुस्कुराते हुए मिरजा ने कहा और एक बार शबनम की ओर भली-भाँति देखा। तेजस्वी श्रीमान् की आँखों से मिलते ही दरिद्र शबनम की आँखें पसीने-पसीने हो गयीं। मिरजा ने देखा, उन आकाश-सी नीली आँखों में सचमुच ओस की बूँदें छा गयी थीं। 'अच्छा, तुम लोग क्या करते हो?' मिरजा ने पूछा। 'यह गाती है, इसी से हम दोनों का पापी पेट चलता है।' मिरजा की इच्छा गाना सुनने की न थी, परन्तु शबनम अब तक कुछ बोली नहीं थी; केवल इसलिए सहसा उन्होंने कहा, 'अच्छा सुनूँ तो तुम लोगों का गाना। तुम्हारा नाम क्या है जी?' 'रहमत खाँ, सरकार!' कहकर वह अपनी सारंगी मिलाने लगा। शबनम बिना किसी से पूछे, आकर कम्बल पर बैठ गयी। सोमदेव झुँझला उठा, पर कुछ बोला नहीं। शबनम गाने लगी- 'पसे मर्ग मेरी मजार पर जो दिया किसी ने जला दिया।' उसे आह! दामने बाद ने सरेशाम से ही बुझा दिया! इसके आगे जैसे शबनम भूल गयी थी। वह इसी पद्य को कई बार गाती रही। उसके संगीत में कला न थी, करुणा थी। पीछे से रहमत उसके भूले हुए अंश को स्मरण दिलाने के लिए गुमगुना रहा था, पर शबनम के हृदय का रिक्त अंश मूर्तिमान होकर जैसे उसकी स्मरण-शक्ति के सामने अड़ जाता था। झुँझलाकर रहमत ने सारंगी रख दी। विस्मय से शबनम ने ही पिता की ओर देखा, उसकी भोली-भाली आँखों ने पूछा-क्या भूल हो गयी। चतुर रहमत उस बात को पी गया। मिरजा जैसे स्वप्न से चौंके, उन्होंने देखा-सचमुत सन्ध्या से ही बुझा हुआ स्नेह-विहीन दीपक सामने पड़ा है। मन में आया, उसे भर दूँ। कहा, 'रहमत तुम्हारी जीविका का अवलम्ब तो बड़ा दुर्बल है।'

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